वनवासी राम, लखन और जानकी शृन्गवेरपुर पहुँचे । गंगा पार करने के लिये श्री राम ने केवट से नाव माँगी । प्रेम विव्हल होकर केवट बोला, हे नाथ, मेरी नैया तो काठ की है, कहीं अहल्या के समान ये भी तर गयी तो ...
पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे,
केवट की जाति, कछु बेद न पढ़ाइहौं ।
सबू परिवारु मेरो याहि लागि, राजा जू,
हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं ॥
गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,
प्रभुसों निषादु ह्वै कै बादु ना बढ़ाइहौं ।
तुलसी के ईस राम, रावरे सों साँची कहौं,
बिना पग धोँएँ नाथ, नाव ना चढ़ाइहौं ॥
© श्री राम गीत गुंजन
Shri Ram Geet Gunjan
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