पार्ट 1

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
कहहिं सुनहिं बहु विधि सब सन्ता

जब जब होइ धरम कै हानी
बाढ़इ असुर अधम अभिमानी

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा

जब जब पृथ्वी पर अधर्म फैला, मानवता भटक गयी, तब तब धरती के उद्धार और लोक कल्याण के लिये ईश्वरीय शक्ति प्रगट हुई । त्रेता युग के अवतार श्री राम का जीवन ऋषि, मुनियों और जन साधारण को सदा से प्रेरणा देता आ रहा है, मार्गदर्शन करता आ रहा है ।



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भये प्रगट कृपाला

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जो समस्त लोकों को शान्ति देने वाले हैं, धर्म की स्थापना एवं लोक कल्याण के लिये, चैत्र शुक्ल नवमी के दिन, अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में प्रगट हुए।

भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी .
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ..

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी .
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी ..

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता .
माया गुन ग्यानातीत अमाना वेद पुरान भनंता ..

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता .
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रकट श्रीकंता ..


बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार .
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ..



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बधैया बाजे

श्री राम के अवतार लेते ही अयोध्या के घर आँगन में बधाई गीत गूँज उठे ।

बधैया बाजे, आंगने में बधैया बाजे ॥

राम लखन शत्रुघन भरत जी ,
झूलें कंचन पालने में ,
बधैया बाजे, आंगने में बधैया बाजे ॥

प्रेम मुदित मन तीनों रानी
सगुन मनावैं मन ही मन में ,
बधैया बाजे, आंगने में बधैया बाजे ॥

राजा दसरथ रतन लुटावै ,
लाजे ना कोउ माँगने में ,
बधैया बाजे, आंगने में बधैया बाजे ॥

राम जनम को कौतुक देखत ,
बीती रजनी जागने में ,
बधैया बाजे, आंगने में बधैया बाजे ॥



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प्रात पुनीत काल प्रभु जागे

बचपन से ही श्री राम बड़े धार्मिक और कर्तव्य परायण थे । गुरुजनों की आज्ञा का पालन उनके लिये पूजा के समान था ।

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे ।
अरुनचूड़ बर बोलन लागे ॥

प्रात काल उठि कै रघुनाथा ।
मात पिता गुरु नावइँ माथा ॥

मात पिता गुरु प्रभु कै बानी ।
बिनहिं बिचार करिय सुभ जानी ॥

सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी ।
जो पितु मात बचन अनुरागी ॥

धरम न दूसर सत्य समाना ।
आगम निगम पुराण बखाना ।।

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा ।
पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥

पर हित सरिस धरम नहि भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥

पर हित बस जिन के मन माँहीं ।
तिन कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥

गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं वेद पुराण ॥

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परसत पद पावन

पिता की आज्ञानुसार श्री राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के आश्रम में रह कर राक्षसों से यज्ञ की रक्षा करने लगे । एक दिन धनुष यज्ञ देखने जनक पुर जाते हुए, श्री राम ने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का उद्धार किया, महामुनि की प्रेरणा से ।

गौतम नारी श्राप बस उपल देह धरि धीर ।
चरण कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ।।

परसत पद पावन, सोक नसावन, प्रगट भई तपपुंज सही ।
देखत रघुनायक, जन सुखदायक, सनमुख होइ कर जोरि रही ॥

अति प्रेम अधीरा, पुलक सरीरा, मुख नहिं आवइ बचन कही ।
अतिसय बड़भागी, चरनन्हि लागी, जुगल नयन जलधार बही ॥

मुनि श्राप जो दीन्हा, अति भल कीन्हा, परम अनुग्रह मैं माना ।
देखेउँ भरि लोचन, हरि भवमोचन, इहइ लाभ संकर जाना ॥

बिनती प्रभु मोरी, मैं मति भोरी, नाथ न मागउँ बर आना ।
पद कमल परागा, रस अनुरागा, मम मन मधुप करै पाना ॥

जनकपुर पहुँच कर भाई लक्ष्मण ने नगर देखने की लालसा प्रगट की । गुरु की आज्ञा ले दोनों भाई नगर देखने निकल पड़े ।



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पार्ट २ - जय जय गिरिबरराज किसोरी

पुष्प वाटिका में श्री राम और जानकी का नेत्र मिलन हुआ । जानकी जी ने श्री राम को अपने हृदय कमल में बसाकर माता गिरिजा की वन्दना की ।

जय जय गिरिबरराज किसोरी ।
जय महेस मुख चंद चकोरी ॥

जय गज बदन षडानन माता ।
जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥

नहिं तव आदि मध्य अवसाना ।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥

भव भव बिभव पराभव कारिनि ।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥

सेवत तोहि सुलभ फल चारी ।
बरदायनी पुरारि पिआरी ॥

देबि पूजि पद कमल तुम्हारे ।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥



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सियँ जयमाल राम उर मेली

धनुष यज्ञ में चुनौती पाकर रघुवंशी लखन तमतमा उठे । गुरु की आज्ञा से श्री राम ने क्षण भर में ही शिव धनुष खण्डित कर दिया । दिशाएं राम की जय जयकार से गूँज उठीं ।

संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥

तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥

सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥



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दूलह राम, सीय दुलही री

मंगल गान और नगाड़ों की ध्वनि से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गूँज उठा । दूल्हा राम और दुल्हन जानकी की अनुपम छवि देखकर सभी देवतागण पुलकित हो उठे ।

दूलह राम, सीय दुलही री ।

घन दामिनि बर बरन हरन मन ।
सुन्दरता नख सिख निबही री ॥

तुलसीदास जोरी देखत सुख ।
सोभा अतुल न जात कही री ॥

रूप रासि विरचि बिरंचि मनु ।
सिला लमनि रति काम लही री ॥



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पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं

शुभ विवाह सम्पन्न हुआ, विदा की करुणामयी बेला आयी । सभी जनकपुरवासी विकल हो उठे । माता सुनयना बार बार सीता को अपने हृदय से लगाती, आशीष देतीं, स्त्री धर्म के मर्म बतलातीं ।

पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं ।
देइ असीस सिखावनु देहीं ॥

होएहु संतत पियहि पिआरी ।
चिरु अहिबात असीस हमारी ॥

सासु ससुर गुरु सेवा करेहू ।
पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥

बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं ।
कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं ॥

गाते बजाते बारात अयोध्या लौट आयी ।



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आज मुझे रघुवर की सुधि आई

श्री राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ होने लगीं । देवलोक में चिन्ता की लहर दौड़ गयी । राक्षसों का संहार कैसे होगा ?

कुचक्र रचा गया । माँ कैकेयी की इच्छा और पिता के वचन की रक्षा के लिये श्री राम ने चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया ।

अयोध्या अनाथ हो गयी ।


आज मुझे रघुवर की सुधि आई ।

आगे आगे राम चलत हैं ।
पीछे लछमन भाई ।
तिनके पीछे चलत जानकी ।
बिपत कही ना जाई ॥

सीया बिना मोरी सूनी रसोई ।
लछमन बिन ठकुराई ।
राम बिना मोरी सूनी अयोध्या ।
महल उदासी छाई ॥



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पार्ट ३ - श्री गुरु चरन सरोज रज

श्री गुरु चरन सरोज रज
निज मन मुकुर सुधार ।
बरनउँ रघुबर बिमल यश
जो दायक फल चार ॥



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पात भरी सहरी

वनवासी राम, लखन और जानकी शृन्गवेरपुर पहुँचे । गंगा पार करने के लिये श्री राम ने केवट से नाव माँगी । प्रेम विव्हल होकर केवट बोला, हे नाथ, मेरी नैया तो काठ की है, कहीं अहल्या के समान ये भी तर गयी तो ...

पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे,
केवट की जाति, कछु बेद न पढ़ाइहौं ।

सबू परिवारु मेरो याहि लागि, राजा जू,
हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं ॥

गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,
प्रभुसों निषादु ह्वै कै बादु ना बढ़ाइहौं ।

तुलसी के ईस राम, रावरे सों साँची कहौं,
बिना पग धोँएँ नाथ, नाव ना चढ़ाइहौं ॥



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भरत चले चित्रकूट

ननिहाल से लौटने पर भरतजी को श्री राम के वनगमन और पिता श्री दशरथ के देहान्त का हृदय विदारक समाचार मिला । भरतजी का भ्रातृ प्रेम से ओत प्रोत निश्च्छल हृदय कराह उठा । वे सबको अयोध्या वापस लाने के लिये, दल बल सहित, वन की ओर चल पड़े ।

भरत चले चित्रकूट, भैया राम को मनाने ।

मैं जानउँ निज नाथ स्वभाऊ ।
अपराधिहिं पर कोह न काहू ॥

विधि न सकेउ सहि मोर दुलारा ।
नीच बीच जननी मिसि पारा ॥

मैं ही सकल अनरथ कर मूला ।
सो सुनि समझि सहा सब सूला ॥

भरत चले चित्रकूट, भैया राम को मनाने ।

कृपासिन्धु सनमानि सुबानी ।
बैठाये समीप गहि पानी ॥

राखेहु राय सत्य मोहि त्यागी ।
तन परिहरेहु प्रेम पन लागी ॥

सो तुम करेहु करावहु मोहू ।
तात तरनि कुल पालक होहू ॥

भरत चले चित्रकूट, भैया राम को मनाने ।

अब कृपालु जस आयसु होई ।
करौं सीस धर सादर सोई ॥

सो अवलम्ब देव मोहि देई ।
अवधि पार पावौं जेहि सेई ॥

प्रभु करि कृपा पाँवड़ी दीन्हीं ।
सादर भरत सीस धर लीन्हीं ॥

भरत चले चित्रकूट, भैया राम को मनाने ।



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तू दयालु, दीन हौं

लेकिन श्री राम धर्म की स्थापना और लोक कल्याण के पथ पर अडिग रहे । आदर्श भ्राता भरत, अपने पूज्य श्री राम की चरण पादुका से आज्ञा माँग माँग कर अयोध्या का राज काज करर्ने लगे ।

श्री राम ने सबके प्रति बराबर स्नेह रखा । उनका साक्षात्कार होते ही ऋषि, मुनि तथा अन्य सभी जन गण, अपनी सुध बुध खो बैठते, उनकी वन्दना करने लगते ।


तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी॥

नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो।
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो॥

ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात-मात, गुरु-सखा, तू सब विधि हितु मेरो॥

तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै॥

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भज मन राम चरण सुखदाई

दण्डक वन में श्री राम ने लंकापति रावण की बहन शूर्पनखा को उसके दुस्साह्स के लिये दण्ड दिया । भिक्षुक वेश बना रावण छल से सीताजी को हर ले गया ।।

गीधराज जटायु ने रावण से मुकाबला किया । पंख कट जाने से धरती पर आ गिरा । मरते मरते श्री राम से भेंट हो गयी । सीता हरण का दुःखद समाचार दे कर जटायु ने परम गति प्राप्त की ।

सीता की खोज में व्याकुल श्री राम, शबरी के आश्रम में पहुंचे और देखा कि शबरी अपने राम के ध्यान में लीन है ।


भज मन राम चरण सुखदाई ॥

जिन चरनन से निकलीं सुरसरि
शंकर जटा समायी ।
जटा शन्करी नाम पड़्यो है
त्रिभुवन तारन आयी ॥
राम चरण सुखदाई ॥

जिन्ह चरणन की चरण पादुका
भरत रह्यो लव लाई ।
सोइ चरण केवट धोइ लीन्हे
तब हरि नाव चढ़ाई ॥
राम चरण सुखदाई ॥

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पार्ट ४ - अतुलित बलधामं

ॠष्यमूक पर्वत पर श्री राम की भेंट हनुमानजी से हुई ।

अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।


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राम काज लगि तव अवतारा

हनुमानजी ने श्री राम की मित्रता वानरराज सुग्रीव से कराई । रीछराज जाम्बवन्त ने प्रभु के कार्य के लिये हनुमानजी का आत्मबल जगाया ।

राम काज लगि तव अवतारा,
हे पवन कुमारा ॥

जो नाँघइ सत जोजन सागर ।
करइ सो राम काज मति आगर ॥

पापिउँ जा कर नाम सुमरहीं ।
अति अपार भव सागर तरहीं ॥

तासु दूत तुम्ह तज कदराई ।
राम हृदय धरि करि ऊपाई ॥

राम काज लगि तव अवतारा ।
सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ॥

पवन तनय बल पवन समाना ।
बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना ॥

कवन सो काज कठिन जग माहीं ।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥

प्रबिस नगर कीजै सब काजा ।
हृदय राखि कोसलपुर राजा ॥





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राम राम बोलो

शक्ति स्वरूप हनुमानजी हुँकार उठे - जय श्री राम ! एक छलाँग में ही वे सागर पार कर गये । लंका में सीताजी की खोज करते समय उन्होंने एक सुंदर मन्दिर देखा जिसपर राम नाम अंकित था । जहाँ राम धुन गूँज रही थी । राम राम राम !


राम राम, राम राम, 
राम राम, राम राम, 
राम राम बोलो |

राम राम, राम राम, 
राम राम बोलो |

राम राम, राम राम |


राम सुमिर पल भर में 
भव के बंध खोलो |
राम राम, राम राम, 
राम राम, राम राम, 
राम राम बोलो | 
राम राम, राम राम |

भाई नाहिं बन्धु नाहिं ,
अपनो कोई मीत नाहिं |
लंक कीच बीच परो ,
राम तेरो चेरो ,
राम तेरो चेरो |


राम राम, राम राम, 
राम राम, राम राम, 
राम राम बोलो | 

विभीषण की सहायता से, हनुमानजी ने माँ सीता के दर्शन किये । उन्हें श्री राम का संदेश दिया, उनका धीरज बँधाया |


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लंक में हनुमत त्राहि मचाई

और फिर माँ की कृपा से लंका में आग लगा दी | त्राहि त्राहि मचा दी ।


अरे, अरे 
राम दूत बानर ने भैया, लंका दयी जराई ,
लंक में हनुमत त्राहि मचाई ,
लंक में हनुमत त्राहि मचाई |

कहत मंदोदरि सुन प्रिय स्वामी

शंकर भक्त परम विज्ञानी
अरे, मति तोरी भरमाई ,
लंक में हनुमत त्राहि मचाई |

हाथ जोड़ कर कहत विभीषण  
भाई ठान न तपसी सों रण 
अरे, सीता दे लौटाई ,
लंक में हनुमत त्राहि मचाई |

अंत काल जब आवत नेरे
मति भ्रम जाय कुसंकट फेरे
अरे, सोइ गति रावण पाई ,
लंक में हनुमत त्राहि मचाई |



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ब्रह्म अनामय अज भगवंता

लंका को जला कर हनुमानजी लौट आये । उन्होंने श्री राम को माँ सीता का संदेश दिया । सीता का संदेश एवं समाचार पाकर श्री राम ने हनुमानजी को अपने हृदय से लगा लिया । 
सीताजी को लंका से लौटा लाने की तैयारियाँ होने लगी । राम नाम के प्रभाव से सागर नें पत्थर तैरने लगे । 

राम नाम मनि दीप धरि जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहरेहु जो चाहसि उजियार ॥ 

ब्रह्म अनामय अज भगवंता | व्यापक अजित अनादि अनन्ता ॥
हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम ते प्रकट होंहिं मैं जाना ॥
यद्यपि प्रभु के नाम अनेका । श्रुति कहँ अधिक एक ते एका ॥
राम सकल नामन्ह तें अधिका । होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥

जिन्ह कर नाम लेत जग माँहीं । सकल अमंगल मूल नसांहीं ॥
कर तल होइ पदारथ चारी । तेइ सिय राम कहेउ कामारी ॥
जासु नाम जप सुनहुं भवानी । भव बन्धन काटहिं नर ग्यानी ॥
जपहिं नाम जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होंहि सुखारी ॥

जड़ चेतन जग जीव जत । सकल राममय जानि ।
बन्दउँ सबके पद कमल । सदा जोरि जुग पानि ॥

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पाई न केहिं गति

अभिमानी और अहंकारी रावण युद्ध में मारा गया । धर्म और सत्य की विजय हुई । देवताओं का कार्य पूरा हुआ । विभीषण को लंका का राजा बना कर श्री राम अयोध्या लौट आए । अयोध्या में श्री राम का राज्याभिषेक हुआ और इस तरह राम राज्य की नीवँ पड़ी ।


पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥1॥

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥

सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै ॥2॥

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदास हूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥3॥

राम चरित मानस से स्पष्ट होताहै कि पृथ्वी पर जब जब भी रावण पैदा होंगे, उनके विनाश के लिये राम भी पैदा होंगे । तुलसी के राम की जय का अर्थ है, जीव की जय, मर्यादा की जय, लोक की जय , मानवता की जय ।

श्री राम जय राम जय जय राम ।

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